सच बात पूछती हूँ बताओ न बाबू जी क्या याद मेरी आती नहीं: दिल और भावनाओं को झकझोर देने वाली यह कविता एक बेटी की अपने पिता से पूछी गई मासूम और सच्ची बातों का भावपूर्ण चित्रण है। यह कविता उस गहरे रिश्ते को बयां करती है जो शब्दों से नहीं, एहसासों से जुड़ा होता है।
📜 कविता – Lyrics:
सच बात पूछती हूँ… बताओ न बाबू जी,
छुपाओ न बाबू जी,
क्या याद मेरी आती नहीं?
पैदा हुई घर में मेरे, मातम सा छाया था,
पापा तेरे खुश थे, मुझे माँ ने बताया था।
ले ले के नाम प्यार जताते भी मुझे थे,
आते थे कहीं से तो बुलाते भी मुझे थे।
मैं हूँ नहीं तो किसको बुलाते हो बाबू जी,
क्या याद मेरी आती नहीं?
हर जिद मेरी हुई, हर बात मानते,
बेटी थी मगर बेटों से ज़्यादा थे जानते।
घर में कभी होली, कभी दीपावली आई,
सेंडल भी मेरी आई, मेरी फ्रॉक भी आई।
अपने लिए बंडी भी न लाते थे बाबू जी,
क्या कमाते थे बाबू जी?
क्या याद मेरी आती नहीं?
सारी उम्र खर्चे में, कमाई में लगा दी,
दादी बीमार थी तो दवाई में लगा दी।
पढ़ने में लगे हम सब, तो पढ़ाई में लगा दी,
बाकी बचा वो मेरी सगाई में लगा दी।
अब किसके लिए इतना कमाते हो बाबू जी,
बचाते हो बाबू जी?
क्या याद मेरी आती नहीं?
कहते थे, मेरा मन कहीं एक पल न लगेगा,
बिटिया विदा हुई तो ये घर घर न लगेगा।
कपड़े कभी गहने, कभी सामान सजोते,
तैयारियाँ भी करते थे, छुप-छुप के थे रोते।
कर कर के याद अब तो, न रोते हो बाबू जी?
क्या याद मेरी आती नहीं?
कैसी परंपरा है ये, कैसा विधान है?
पापा, बताओ ना… कौन सा मेरा जहान है?
आधा यहाँ, आधा वहाँ – जीवन है अधूरा,
पीहर मेरा पूरा है न ससुराल है पूरा।
क्या आपका भी प्यार अधूरा है बाबू जी?
न पूरा है बाबू जी…
क्या याद मेरी आती नहीं?
सच बात पूछती हूँ, बताओ न बाबू जी,
छुपाओ न बाबू जी,
क्या याद मेरी आती नहीं…?
❤️ इस कविता की खास बात:
- यह कविता हर उस बेटी की भावना को आवाज़ देती है जो अपने पिता से दूर हो जाती है।
- इसमें पिता और बेटी के रिश्ते की मासूमियत, त्याग और गहराई दिखती है।
- ये पंक्तियाँ उन सभी को भावुक कर देती हैं जिनकी बेटी विदा हो चुकी है।